पौरोहित्य प्रशिक्षण शिविर का आयोजन 29 से

अजमेर। राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर एवं श्री नर्मदेश्वर संन्यास आश्रम परमार्थ ट्रस्ट महावीर सर्किल गंज अजमेर के संयुक्त तत्वाधान में 20 दिवसीय (29 दिसम्बर से 17 जनवरी 2015 तक) पौरोहित्य प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया जायेगा। यह शिविर पूर्णतः निःशुल्क है। इस शिविर में पौरोहित्य ‘कर्मकाण्ड’ के विषय में जानकारी दी जायेगी।

स्वामी शिवज्योतिषानन्द जी महाराज के सानिध्य में शिविर सायं 4:30 बजे से प्रारम्भ होगा। इस शिविर में भाग लेने वाले प्रशिक्षणार्थियों से अनुरोध है कि अपना नाम दर्ज करवा लें। इस शिविर में आचार्य राघव मिश्रा एवं अन्य विद्वानों द्वारा प्रशिक्षण दिया जायेगा।

बर्फ की चादर से केदारनाथ मंदिर की खूबसूरती में आया निखार

Snowfall-in-Kedarnath, Snowfall Kedarnath, Kedarnath Tample, केदारनाथ में बर्फबारी, केदारनाथ

केदारनाथ। केदारनाथ की खूबसूरती की जितनी तारीफ की जाए कम है, लेकिन बर्फबारी के बाद से ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग केदारनाथ का नजारा और भी भव्य हो गया है। बर्फ की चादर केदारपुरी की सुंदरता पर चांद लगा रही है, जिससे आपदा के निशान बर्फ के पर्दे में छुप से गए हैं।

खूबसूरत फिजाओं और शांत वातावरण में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के कर्मचारियों और मजदूरों का जोश देखते ही बनता है। फिलहाल शीतकाल में कपाट बंद होने के बाद पंचकेदार गद्दी स्थल ओंकारेश्वर मंदिर खीमठ में बाबा केदार की पूजा हो रही है। कपाट बंद होने के बाद से यहां पूरा सन्नाटा पसरा हुआ है और कुछेक पुलिसकर्मी मंदिर की सुरक्षा में तैनात हैं। मंदिर के प्रांगण और चारों ओर फैली बर्फ की चादर ने मंदिर की खूबसूरती को और भी निखार दिया है।

मंदिर के आगे के भाग को छोड़कर सभी ओर अभी से दो फीट से अधिक बर्फ जमी हुई है। मंदाकिनी और सरस्वती नदी पर भी बर्फ की चादर बिछी हुई है। बर्फ के साथ दोनों नदियों का उद्गम स्थल खूबसूरत नजर आ रहा है। केदारनाथ में गत वर्ष आई आपदा के जख्मों को बर्फ ने अपनी चादर ओढ़ाकर ढक दिया है।

हाड कंपाने वाली ठंड के बावजूद निगम के र्कमचारी, मजदूर और पुलिसकर्मी यहां अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इनकी हौसला-अफजाई के लिए स्वयं निगम के प्रिंसिपल कर्नल अजय कोठियाल भी पिछले कई दिनों से केदारपुरी में डेरा जमाए हुए हैं और काम पर नजर रख रह हैं।

कोठियाल ने बताया कि केदारपुरी में भले ही कड़ाके की ठंड हो लेकिन सभी लोग पूरी तन्मयता से काम में जुटे रहते हैं। निगम के सहयोगी बृजमोहन बिष्ट का कहना है कि सभी कर्मचारी और मजदूर पूरे जोश के साथ काम करते हैं और एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। साथ ही रात्रि के समय भजन-कीर्तन और नाच-गाना चलता रहता है।

उत्तरकाशी में मोरी के कलाब गांव के नौजवान भी केदारपुरी में पुनर्निर्माण के काम में जुटे हुए हैं। सड़क मार्ग से 14 किमी दूर इस गांव की खबर एक अखबार में प्रकाशित होने के बाद निगम के प्रिंसिपल र्कनल अजय कोठियाल ने युवाओं को सेना में भर्ती के लिए प्रशिक्षण भी दिया। साथ ही यहां के युवाओं को रोजगार भी दिया है। युवा केदारपुरी में निगम के साथ काम कर रहे हैं।

कलाब गांव के राकेश राणा और सुरेश राणा ने बताया कि उनके गांव में सड़क नहीं होने से काफी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। गांव में आठवीं कक्षा तक ही स्कूल है और आगे की पढ़ाई के लिए गांव से दूर जाना पड़ता है। उन्होंने बताया कि कर्नल कोठियाल की वजह से आज गांव के युवाओं को रोजगार मिला है।

बिठूजाधाम में उमड़ा आस्था का सैलाब

बालोतरा। बाबा रामदेव की विश्राम स्थली के नाम से विख्यात बिठूजाधाम स्थित प्राचीन रामसापीर के मंदिर पर सोमवार को बाबा दूज के मेले में दूर-दराज क्षेत्रों से हजारों श्रद्धालुओं ने बाबा रामदेवजी की प्रतिमा के दर्शन व पूजा-अर्चना कर मन्नतें मांगी। भक्त भैरूलाल डागा ने बताया कि मंदिर में बाबा दूज के अवसर पर दिनभर श्रद्धालुओं की रेलमपेल लगी रही।

प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में क्षेत्र के जानियाना, नारिया, बुड़ीवाड़ा, जागसा, असाड़ा, टापरा, गोपड़ी, आसोतरा, कीटनोद, बालोतरा, जसोल, पचपदरा, पारलू, कनाना, सराणा, सहित आसपास के गांवों व कस्बों से बड़ी संख्या में पैदल जातरु हाथों में रंग-बिरंगी ध्वज पताका लिए बिठूजाधाम आकर बाबा की आदमकद प्रतिमा की पूजा-अर्चना कर महाआरती में भाग लिया।

101 दीपक की महाआरती
डागा ने बताया कि बाबा दूज के मौके पर सूर्य की प्रथम किरण के साथ ही रामसापीर की प्रतिमा का वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पुजारी द्वारा पंचामृत से अभिषेक किया गया। इसके बाद प्रतिमा को नवीन वस्त्राभूषण पहनाकर गुलाब व चमेली के सुगंधित फूलों से श्रृंगारित किया। एक सौ एक दीप प्रज्ज्वलित कर भक्त बाबूलाल देवासी, शंकरराम चौधरी, पी राजेश जैन, डूंगरचंद सालेचा, शिवलाल प्रजापत ने महाआरती की।

उन्होंने ब्रह्ममुहूर्त में सवेरे 8 बजे 11 फीट लंबी बाबा की पंचरंगी ध्वजा को ढोल-ढमाकों के साथ मंदिर के शिखर पर श्रद्धालु जितेंद्र लूंकड़, राणाराम मेघवाल, ताराराम परिहार, चंपालाल गहलोत, गोपाराम चौधरी द्वारा चढ़ाई। बाबा दूज के अवसर पर जोधपुर से पुष्करणा समाज का 225 यात्रियों का जत्था नारायणकिशन हर्ष व जेपी व्यास के नेतृत्व में बाबा के दर्शनार्थ आकर प्रदेश में सुख-समृद्धि की कामना की।

भजनों की बहाई सरिता मंदिर परिसर में दोपहर को भजन कीर्तन का आयोजन किया गया, जिसमें क्षेत्र के गायक कलाकार राजु जांगिड़ व नारायण माजीराणा ने सुमधुर भजनों की प्रस्तुतियां दी। बाबा दूज के दिन बिठूजा गांव की पोल से लेकर मंदिर के मुख्य द्वार तक का पूरा मार्ग दिनभर बाबा के जयकारों से गूंज उठा। दूज के मौके पर बाबा रामदेवजी के मुख्य मंदिर सहित बालकनाथजी के धूणा, डालीबाई, सुगनाबाई, शिव, कृष्ण व विष्णु भगवान के मंदिरों पर गुलाब व चमेली के फूलों से तथा बिजली रोशनी से सजाया गया। मेले के दौरान पुलिस प्रशासन की ओर से जाब्ता मुस्तैद रहा।

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2015 तक तैयार होगा वैष्णों देवी में बनने वाला रोपवे

जम्मू। वैष्णो देवी मंदिर में बनने वाला रोपवे 2015 तक बनकर तैयार हो जायेगा। श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के कार्यकारी अधिकारी एन के भादरी ने जानकारी देते हुए बताया कि कटरा शहर में विकास कार्य प्रगति पर है।

उन्होंने बताया कि भवन से भैरो मंदिर तक बनने वाले यात्री रोपवे का कार्य प्रगति पर है और इसका निर्माण 2015 तक पूरा हो जायेगा। उन्होंने बताया कि राज्यपाल एन.एन बोहरा ने जो श्रीमाता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के चेयरमैन भी है, उन्होंने समीक्षा बैठक में इसकी घोषणा की।

बोहरा ने पर्यावरण की सुरक्षा के मद्देनजर विभिन्न स्थानों में गंदे पानी की निकासी के लिए इंतजाम करने के  निर्देश दिये। उन्होंने बताया कि रोपवे के अलावा अन्य विकासात्मक कार्य भी हो रहे हैं, जिसमें रेलवे ट्रेक बिछाना, पार्किंग सुविधा और बहुउद्देशीय खेल स्टेडियम का भी निर्माण किया जाना भी शामिल है।

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Video : मथुरा में बनेगा दुनिया का सबसे ऊंचा श्रीकृष्ण मंदिर

मथुरा। पवित्र नगरी मथुरा में दुनिया का सबसे ऊंचे भगवान श्रीकृष्ण के चंद्रोदय मंदिर का निर्माण कार्य रविवार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और राज्यपाल राम नाईक द्वारा की गई पूजा के बाद शुरू कर दिया गया। इस मंदिर बेहतरीन नक्काशी और शिल्पकला से दुनियाभर में जाना जाएगा।

इस मंदिर को सिर्फ क्रांकीट, शीशे एवं दुर्लभ कीमती पत्थरों से बनाया जाएगा। मंदिर के निर्माण पर 300 करोड़ रुपए की लागत लगने का अनुमान है। मंदिर के केंद्र में भगवान श्रीकृष्ण की भव्य प्रतिमा स्थापित की जाएगी। यह मंदिर प्राचीन और आधुनिक वास्तुकला का अभूतपूर्व संगम होगा। 70 मंजिला यह मंदिर जल्द साकार रूप लेगा।

आध्यात्म के इस अद्‍भुत केंद्र की ऊंचाई 700 फुट होगी, जो 65 एकड़ जमीन पर बनाया जा रहा है। मंदिर के चारों तरफ कृत्रिम पहाड़ियां एवं वन होंगे। इसमें बृज के 12 वन क्षेत्र  शामिल होंगे। चंद्रोदय मंदिर परिसर में भगवान श्रीकृष्ण के नाम पर एक संग्रहालय भी बनाया जाएगा।

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दीपावली पर पूरे शहर को अपना परिवार मानकर निभाई जाती है यह अनूठी परंपरा

केकड़ी (अजमेर)। हमारे भारत देश में त्यौहारों और अन्य कई मौकों पर तरह-तरह की विभिन्न परंपराएं निभाई जाती है, जो कहीं आकर्षक होती है और कहीं बहुत ही अनूठी। त्यौहारों के देश भारत में सालभर में ऐसे कई मौके आते हैं, जब इस तरह की परंपराओं का निर्वहन किया जाता है। इन्हीं त्यौहारों में से एक और हिंदु धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार माने जाने वाला पर्व है दीपावली।

भारतीय साल के अनुसार कार्तिक माह की अमावस्या के दिन मनाए जाने वाले इस त्यौहार पर लोग अपने-अपने घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में एक और जहां साफ-सफाई कर उसे नए रंग-रौगन कर सजाते हैं। वहीं घरों और दुकानों में रखे पुराने सामानों की जगह पर नए सामान लाते हैं, वहीं दूसरी ओर धन की देवी माता लक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर उसका वंदन करते हैं और अपने-अपने घरों में माता लक्ष्मी का आह्वान करते हैं।

मान्यताओं के अनुसार मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम अपने वनवास काल के दौरान लंका के राजा रावण का वध करने के बाद श्रीराम अपने घर अयोध्या लौटे थे और वहां उनके लौटने की खुशी में पूरे राज्य में खुशियां मनाई गई थी। लोगों ने अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर श्रीराम का स्वागत किया। उस दिन को आज देशभर में दीपावली के रूप में मनाया जाता है।

लोग अपने-अने घरों में आज भी दीपक जलाकर दीपमाला बनाते हैं और आतिशबाजी कर श्रीराम के लौटाने की खुशी मनाते हैं। दीपावली के दूसरे दिन को गोवद्र्धन पूजन के रूप में मनाया जाता है, जिसमें अपने घरों के बाहर गाय के गोबर से गोवद्र्धन बनाकर उसका पूजन किया जाता है। इसी दिन शाम के समय कई जगहों पर बेलों का पूजन किया जाता है। 

बेलों का पूजन राजस्थान मे अजमेर जिले के उपखंड केकड़ी में बड़े ही अनूठे तरीके से किया जाता है, जिसमें खेतों में किसानों के साथी माने जाने वाले वाहन ट्रेक्टर और बेलों का पूजन किया जाता है। पूजा होने के बाद जहां ट्रेक्टर को फूलों और मालाओं से सजाया जाता है, वहीं बेलों के भी रंग-बिरंगे छापे लगाकर सजाया जाता है। इसके बाद बेल पालने वाले किसान अपने-अपने बेलों को पूरे शहर के निमित किये जाने वाले कार्य के लिए लेकर जाते हैं। पूरे शहर को अपना परिवार मानकर किए जाने वाला यह पुनित कार्य ही सबसे अनूठी परंपरा है, जिसे ‘घासभैरूं’ के नाम से जाना जाता है।

इस परंपरा में भैरूंजी के रूप में पूजे जाने वाले एक बड़े से शिलाखंड़ को पूरे शहर में घुमाया जाता है, ताकि शहर के किसी घर में किसी भी तरह की कोई आपदा-विपदा हो तो भैरूंजी उसे समाप्त कर अपने साथ ही ले जाते हैं और शहर को तमाम विपदाओं से बचाया जा सके। इस परंपरा में सबसे अचरज वाली बात यह है कि भैरूंजी के इस शिलाखंड की इस तरह से साल में सिर्फ इसी दिन पूजा जाता है और इस दिन के अलावा अगर कोई तीन-चार बलिष्ठ आदमी इसे उठाने का प्रयास करे तो वे इसे उठा सकते हैं, लेकिन इस दिन यह शिलाखंड इतना भारी हो जाता है कि इसे कई जोड़ी बेलों की मदद के साथ-साथ शहर के कई किसानों के द्वारा खींचे जाने पर भी यह बड़ी मुश्किलों से खींचा जाता है।

विशेष रूप से इसी दिन इस शिलाखंड के इतना भारी होने के पीछे भी एक अनोखी कहानी है। शहर में रहने वाले तमाम बुजुर्ग बताते है कि भैरूंजी के इस शिलाखंड़ को अपने स्थान से उठाए जाने से पहले काफी देर तक यहां इनके भजन-कीर्तन होते हैं और भैरूंजी के स्थान वाली सभी चढ़ाई जाने वाली शराब के समान ही श्रद्धालु इस पर भी शराब चढ़ाते हैं। यह सिलसिला काफी देर तक चलता है और ऐसा माना जाता है कि काफी शराब चढ़ाए जाने की वजह से ही भैरूंजी माने जाने वाले इस शिलाखंड का वजन बढ़ जाता है, जिसे बेलों और कई आदमियों की मदद से ही खींचा जा सकता है, इसे खेचने के लिए लगाए गए बेल भी इसे खींचते हुए भाग नहीं पाते हैं।

इसके लिए भी शहरवासियों के द्वारा एक युक्ति काम में ली जाती है, जिसमें बेलों के आसपास पटाखे फैंक जाते हैं, ताकि वे पटाखों की आवाज से डरकर भागे और भैरूंजी के इस शिलाखंड को आगे बढ़ाए। इन बुजुर्गों का कहना है कि पहले सद्भावना के साथ इस तरह पटाखे फैंके जाते थे, जिससे ये बेल डर से भागते थे और भैरूंजी का पूरे शहर में घुमाते हुए सुबह करीब तीन-चार बजे वापस अपने स्थान पर रख दिया जाता था।

‘गंगा-जमुना’ की होती है करोड़ों की बिक्री 

दीपावली के त्यौहार पर यूं तो कई तरह की रंग-बिरंगी आतिशबाजी वाले पटाखे बेचे जाते हैं, लेकिन यहां दीपावली से ज्यादा पटाखों की बिक्री दीपावली के दूसरे दिन घास-भैरूं की परंपरा के लिए होती है। खास बात यह है कि इस घास-भैरूं में सिर्फ एक ही पटाखे फोड़े जाते है, जिसे ‘गंगा-जमुना’ कहा जाता है। इस पटाखें को जलाने के बाद कुछ देर तक तो इसमें फव्वारें निकलते है, उसके बाद जोरदार आवाज के साथ ब्लास्ट होता है। घास-भैरूं के दौरान इस पटाखे को साधारण तरीके से नहीं फोड़ा जाता है, बल्कि इसे जलाकर फव्वारें निकलते हुए को भीड़ के ऊपर फैंकते हैं। यह तरीका बिल्कुल वैसे ही है, जैसे कोई बम फैंका जाता है। घास-भैरूं के दौरान विशेष रूप में ‘गंगा-जमुना’ का उपयोग किया जाता है, जिसके चलते इस दिन इस पटाखे की मांग में जबरदस्त उछाल आ जाता है और इसकी कीमत करीब तीन-चार गुना तक वसूली जाती है। इस लिहाज से केवल घास-भैरूं वाले दिन ही इस पटाखे की बिक्री करोड़ो रुपए का आंकड़ा पार कर जाती है।

अब खराब होने लगा ‘माहौल’

इस बात पर अफसोस जताते हुए यहां रहने वाले कई बुजुर्गों ने बताया कि, ‘अब पहले जैसी बात नहीं रही, पहले और अब में बहुत फर्क आ गया है। बेलों को आगे बढ़ाने के लिए फैंके जाने वाले पटाखे पहले सद्भावना से फैंके जाते थे लकिन अब लोग पटाखे फैंके जाने के असली मकसद को भूलते जा रहे हैं और शहर के भलाई के निमित किए जाने चाले इस पुनित कार्य में बहुत से शरारती तत्व शामिल होने लगे हैं, जो बेलों के आसपास वाले स्थान की जगह के बजाय लोगों पर पटाखे फैंकते हैं, जिससे कई बार अनहोनी हो जाती है और बहुत से लोग जल भी जाते हैं। घासभैरूं की इस परंपरा के निर्वहन में पुलिस-प्रशासन भी मुस्तैद रहता है और पुलिस के कई जवानों को इसमें सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, जिन पर भी ये शरारती तत्व जानबुझकर पटाखे फैंकते है, जिससे माहौल भी खराब होने लगा है।

बीते कई सालों में इस तरह की हरकतों से कई लोग और कई पुलिस वाले घायल हो चुके हैं। अब पुलिस वाले पहले से और भी अधिक सतर्क रहते हैं और आसपास के इलाकों से भी प्रलिस बुलाई जाती है और कई पुलिस वालों को सादा वर्दी में भी तैनात किया जात है, जिससे शरारती तत्वों पर उनके करीब रहकर उन पर कड़ी नजर बनाई रखी जी सके और उनके द्वारा किए जाने वाले किसी भी हरकत पर उन्हें तुरंत दबोचा जा सके।

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यहां की जाती है योनि की पूजा और लगता है तांत्रिकों व अघोरियों का मेला

असम के गुवाहाटी से 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पहाड़ी पर स्थित कामाख्या मंदिर, जो कामाख्या देवी को समर्पित है। 52 शक्तिपीठों में से एक यह सबसे पुराना शक्तिपीठ है। शक्तिपीठों को लेकर कहा जाता है कि, जब सती के पिता दक्ष ने अपनी पुत्री सती और उसके पति शंकर को यज्ञ में अपमानित किया और शिवजी को अपशब्द कहे तो सती ने दुःखी होकर आत्म-दहन कर लिया।

शंकर ने सती कि मॄत-देह को उठाकर संहारक नृत्य किया। तब सती के शरीर के 51 हिस्से अलग-अलग जगह पर गिरे, जो 51 शक्ति पीठ कहलाये। कहा जाता है सती का योनिभाग कामाख्या में गिरा। उसी स्थल पर कामाख्या मन्दिर का निर्माण किया गया। कामाख्या मन्दिर के गर्भ गृह में योनि के आकार का एक कुंड है, जिसमे से जल निकलता रहता है। यह योनि कुंड कहलाता है। यह योनि कुंड लाल कपडे व फूलो से ढका रहता है।

इस मंदिर में प्रतिवर्ष अम्बुबाची मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमे देशभर के तांत्रिक और अघौरी हिस्‍सा लेते हैं। ऐसी मान्यता है कि ‘अम्बुबाची मेले’ के दौरान मां कामाख्या रजस्वला होती हैं और इन तीन दिन में योनि कुंड से जल प्रवाह कि जगह रक्त प्रवाह होता है । ‘अम्बुबाची मेले को कामरूपों का कुंभ कहा जाता है। मां कामाख्या देवी की रोजाना पूजा के अलावा भी साल में कई बार कुछ विशेष पूजा का आयोजन होता है। इनमें पोहन बिया, दुर्गाडियूल, वसंती पूजा, मडानडियूल, अम्बूवाकी और मनसा दुर्गा पूजा प्रमुख हैं।

किवदंतियों के अनुसार, घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों ओर पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है।

गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गई, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी `कुक्टाचकि’ के नाम से विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया।

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दशहरा पर्व : दसों पापों को हरने वाला त्यौहार

त्यौहार लोक जीवन की प्रगाढ़ता के केन्द्र बिन्दु माने जाते हैं। यह न केवल हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन को प्रभावित करते हैं वरन इनके साथ हमारी आर्थिक गतिविधियाँ भी पूरी तरह से जुड़ी हुई हैं। त्यौहार पग पग पर व्यक्ति को समाज के साथ जोड़ते हैं। प्रकृति के बदले परिधानों के साथ जुड़े त्यौहार फूलों के बदलते रंगों की भाँति व्यक्ति को लुभाते रहते हैं। इनकी विविधता मानव को अपने मोहपाश में बाँधे रखती है।

त्यौहार के एक एक क्षण को प्रत्येक व्यक्ति पूरे उत्साह के साथ जीना चाहता है। वैदिक परम्परा में जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण अज्ञान से बाहर निकल कर ज्ञान प्राप्ति अथवा मुक्ति का क्षण माना गया है। इसी क्षण को मुहूर्त भी कहा गया है। इस परम्परा के सर्वोपरि मुहूर्तों में सबसे महत्त्वपूर्ण मुहूर्त दशहरा है। दशहरा का अर्थ है, वह पर्व जो दसों प्रकार के पापों को हर ले। इस दिन को विजय दशमी का दिन भी स्वीकार किया गया है।

एक मान्यता के अनुसार आश्विन शुक्ला दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। यह वह क्षण है जब दशेंद्रियों पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर मानव जीवन की सीमाओं का उल्लंघन कर ज्ञान प्राप्त करता है। इसीलिए दशहरे के पर्व को ‘सीमोल्लंघन’ के नाम से भी पुकारा जाता है।

पूर्वी भारत में यह ‘बिजोया’ नव वर्ष की भाँति उल्लास से नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। यहाँ इसे मां भगवती की महिषासुर पर विजय का प्रतीक माना जाता है। विजयदशमी का त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के आगमन की सूचना देता है। ब्राह्मण इस दिन सरस्वती का पूजन करते हैं जबकि क्षत्रिय शास्त्रों की पूजा करते हैं।

अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में यह त्यौहार सदियों से भारत के कोने कोने में मनाया जाता है। सीधे सरल रूप से भारतीय जनमानस ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस दिन भगवान राम ने असुर रावण पर विजय पाई थी, जबकि अनेक विद्वान इस बात को भ्रामक मानते हैं। कुछ का मत है कि रावण का वध कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हुआ। किसी भी धर्मग्रन्थ में क्वार शुक्ल विजयदशमी को रावण के वध का उल्लेख नहीं मिलता।

वैदिक शास्त्रों में वर्णित ब्राह्मण परम्पराओं के त्यौहारों में दशहरे का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इस प्रकार यह वैदिक या ब्राह्मण परम्परा का उत्सव नहीं है। लगता है कि रामायण कि लोकप्रियता के कारण क्षत्रियों ने इसे अपने विजयाभिमान का प्रतीक बना कर मनाना प्रारम्भ किया होगा। इसीलिए इस उत्सव को अधिकार राजघरानों का संरक्षण प्राप्त हुआ। अनेक विद्वानों ने इस पर्व को महाभारत के साथ जोड़ा है।

उनका मत है कि जब पाण्डव अज्ञातवास के दौरान विराट नगरी में रह रहे थे तब कौरवों ने विराट के महाराजा की गाओं का हरण करके पाण्डवों को अज्ञातवास से बाहर आने के लिए बाध्य किया। क्वार सुदी दशमी के दिन वृहन्नला के रूप में अर्जुन ने पहली बार कौरवों से युद्ध करके उन्हें हराया। यह अधर्म पर धर्म की विजय का द्योतक माना गया और दशमी के इस दिन को विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा।

दशहरा भारत के उन त्यौहारों में से है, जिसकी धूम देखते ही बनती है। बड़े-बड़े पुतले और झांकियां इस त्यौहार को रंगा-रंग बना देती हैं। रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतलों के रूप में लोग बुरी ताकतों को जलाने का प्रण लेते हैं। दशहरे के दिन हम तीन पुतलों को जलाकर बरसों से चली आ रही परपंरा को तो निभा देते हैं, लेकिन हम अपने मन से झूठ, कपट और छल को नही निकाल पाते। हमें दशहरे के असली संदेश को अपने जीवन में भी अमल में लाना होगा, तभी यह त्यौहार सार्थक बन पाएगा।

बुराई पर अच्छाई और असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक इस दशहरा पर्व पर आप सभी को Rajasthan News1 टीम की और हार्दिक शुभकामनाएं।

 

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वर्ष में दो बार क्यों मनाई जाती है नवरात्रि?

उदयपुर (सतीश शर्मा)। नवरात्रि वर्ष में दो बार मनाया जाने वाला इकलौता उत्सव है- एक नवरात्रि गर्मी की शुरूआत पर चैत्र में, तो दूसरा शीत की शुरूआत पर आश्विन माह में। गर्मी और जाड़े के मौसम में सौर-ऊर्जा हमें सबसे अधिक प्रभावित करती है। क्योंकि फसल पकने, वर्षा जल के लिए बादल संघनित होने, ठंड से राहत देने आदि जैसे जीवनोपयोगी कार्य इस दौरान संपन्न होते हैं। इसलिए पवित्र शक्तियों की आराधना करने के लिए यह समय सबसे अच्छा माना जाता है।

प्रकृति में बदलाव के कारण हमारे तन-मन और मस्तिष्क में भी बदलाव आते हैं। इसलिए शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए हम उपवास रखकर शक्ति की पूजा करते हैं। एक बार इसे सत्य और धर्म की जीत के रूप में मनाया जाता है, वहीं दूसरी बार इसे भगवान श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कुल मिलकर नवरात्री का का पर्व वास्तव में मातृशक्ति की साधना का पर्व है, नवजागरण का पर्व है।

मातृशक्ति का भारतीय संस्कृति में सर्वोच्च महत्व है। जीवन का प्रवाह, हमारी प्राणशक्ति का स्नोत मातृशक्ति ही है। ब्रह्मांड के हर तत्व में निहित व हर तत्व की सृजनकर्ता मातृशक्ति ही है। इसलिए हिंदू धर्म के अनुसार मातृशक्ति को सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप भी कहा गया है। इसके बिना किसी भी ईश्वरीय तत्व का उद्भव ही संभव नहीं है। मातृशक्ति को आद्यशक्ति भी कहा गया है।

मां भगवती के नवस्वरूप की अर्चना साधना का पर्व है, मां भगवती का हर स्वरूप अध्यात्म के मूल तत्वों- ज्ञान,सेवा, पराक्रम, समृद्धि, परमानंद, त्याग, ध्यान और सृजन शक्ति का अवतरण है। मातृशक्ति के चार स्वरूप-गीता, गंगा, गायत्री और गौ माता हैं। आद्यशक्ति मां भगवती की साधना को जीवन में धारण कर मनुष्य अपनी क्षुद्रताओं से परे जाकर अपने इष्ट के देवत्व से एकाकार कर सकता है।

मनुष्य की कोई भी सोच जो समाज में भेद पैदा करे, मनुष्य को मनुष्य से दूर करे चाहे वह भाषावाद, प्रांतवाद और जातिवाद की ही बात क्यों न हो, उसे पनपने नहीं देना चाहिए। हम सभी आद्यशक्ति मां भगवती की संतान हैं। हम सभी में एक ही चेतना है, एक ही प्राण हैं।

(इस लेख में 3 ज्योतिषों और धर्म गुरुओं के विचार शामिल है)

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जानिए, आखिर क्या होता है ‘उपवास’?

उदयपुर (सतीश शर्मा)। उपवास : उप का अर्थ है निकट और वास का अर्थ है निवास। अर्थात ईश्वर से निकटता बढ़ाना। कुल मिलाकर यह माना जाता है कि उपवास के माध्यम से हम ईश्वर (मां) को अपने मन में ग्रहण करते हैं, मन में ईश्वर का वास हो जाता है। लोग यह भी मानते हैं कि आज की परिस्थितियों में उपवास के बहाने हम अपनी आत्मिक शुद्धि भी कर सकते हैं, अपनी जीवनशैली में सुधार ला सकते हैं।

हिन्दू धर्म में या (शास्त्रों के अनुसार) उपवास का सीधा-सा अर्थ है आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अपनी भौतिक आवश्यकताओं का परित्याग करना। सामान्यत: भाषा में बात करें .. तो भोजन (खाना) लेने से हमारी इंन्द्रियां तृप्त हो जाती हैं और मन पर तन्द्रा तारी होती है। कम मात्रा में भोजन करके या फलाहार करके हम इन्द्रियों को नियंत्रित करना सीखते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार भी जब आपका पेट भरा होता है तो आपकी बुद्धि सो जाती है,  विवेक मौन हो जाता है।

वहीं आजकल आर्ट आॅफ लिविंग में भी यही बताया जाता है, कि उपवास रखने से हमारे तन-मन दोनों का शुद्धिकरण होता है, हमारा दिमाग पाचक अग्नि की तरफ नहीं जाता। ऊर्जा-संग्रहण से मन चैतन्य रहता है। उपवास से हम दूसरों के कष्ट का भी अहसास कर सकते हैं। यह शरीर और आत्मा को एकाकार करने का माध्यम तो है ही, इससे भागम-भाग वाली जीवनशैली से भी कुछ समय के लिए निजात पाया जा सकता है।

नवरात्री से मिलती सिख : हमारे किसी भी भेद से कष्ट मां भगवती को ही होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसने हमें इस पावन धरा पर आपसी प्रेम व भाईचारे का अनुपम संदेश हर जगह फैलाने के लिए भेजा है। यही संगठन साधना है और राष्ट्र साधना है। मनुष्य को सही मायने में मनुष्य बनाने के लिए किया गया सर्वोत्तम प्रयास है। नवरात्र में हम एक बार पुन: नव-ऊर्जा से परिपूरित होकर भारतीय जनमानस के लिए कुछ कर सकें, तो समाज का कल्याण निश्चित है। मां भगवती का दिव्य संदेश भी यही सिख प्रत्येक धर्म, समाज और क्षेत्र के लिए है।

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